शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

विंध्याचल  दर्शन 
                                  बहुत समय से हम लोग माँ विंध्यवासिनी के दर्शन के लिए लालायित थे । हमेशा पत्नी ताने मारती कि हम कभी भी माँ के दर्शन नहीं कर पाएंगे । संयोग से ओमशिव के शादी का अवसर आया और हमारे मन में यह विचार भी आया कि क्यों नहीं इस अवसर पर ही माँ का दर्शन लाभ उठाया जावे । थोड़ी सी मन में कसक रह गयी कि साथ में बेटी नहीं जा पायी क्योकि उसकी परीक्षा का समय भी उसी समय पर था । मौसम सर्दी का था । इसका एक लाभ और एक हानि थी । लाभ कि भीड़ नहीं थी तथा हानि कि मौसम सर्दी का होने से आरामदेह स्थिति नहीं बन पा रही थी । परन्तु एक बहुत बड़ी बात यह थी कि मेरे मित्र श्री विनोद जी यहीं पदस्थापित होने से बहुत लम्बे अर्से के बाद या यूं कहें कि छात्र जीवन के बाद उनके कार्य स्थल पर पहली बार ऐसे पावन स्थल पर उनकी उपलब्धियों के बीच मिलने का अवसर मिल रहा था । बहुत सुन्दर रहने लायक निवास स्थल का निर्माण कर लिए थे । जिससे बहुत प्रसन्नता हुई । 
                                  राजस्थान से जाने पर गंगा जी के प्रति एक अलग ही उमंग और आनंद का अहसास हो रहा था । साथ में बहुत अजीज मित्र का साथ भी मिल रहा था । 

गंगा नदी के पार जाते हुए नॉव पर विनोद जी एवं मैं 

अनूप अपनी माँ के साथ नॉव पर 

विनोद जी एवं मैं माँ के दर्शन के लिए प्रतीक्षा में 


माँ विंध्यवासिनी 
                                           माँ के दर्शन के बाद पंडित जी लोगों के येन केन दान करवा कर  धन  प्राप्ति  करने की युक्ति मन को व्यथित करने वाली हुई । वैसे ही श्रद्धालुगण मंदिर में श्रद्धा के साथ अपने अधिकतम दान की भावना के साथ जाते है । परन्तु जब उनसे व्यवसायिक दृष्टिकोण से व्यवहार किया जाता है । या यूँ कहे कि आज ही  मुर्गी को हलाल कर दो दुबारा फिर यह आये कि नहीं । इस स्थिति पर हमें अपने धर्म और व्यवस्था को और अधिक मानवीय बनाने की जरुरत महसूस होती है । योग्य को ही पूजा पाठ से सम्बंधित कर्मो की तरफ जुड़ना चाहिए । अन्यथा दलाल किस्म के लोग धर्म को बर्बाद कर देंगे ।  भगवान के दर्शन के लिए धन अनिवार्य नहीं होना चाहिए । परन्तु  अनुभव यही कहता है  कि धन से   भगवान का दर्शन मंदिरों में आसान हो जाता है ।  


अष्टभुजा माँ 

कालीखोह की काली माँ 

अनूप पूजन सामग्री निहारते हुए 

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