रविवार, 12 अगस्त 2012

जीवन के उत्तरार्द्ध की जटिलता


सावन की सप्तमी पर हमारे गांव में बाबा रैनाथब्रह्म महाराज के स्थान पर सत्यनारायण भगवान की कथा की जाती हैं जिसमें सभी लोग श्रद्धापूर्वक कथा श्रवण करते हैं तथा समापन पर सामूहिक भोज का आयोजन होता है । इस पूजा पर परोसी जाने वाली खीर मुझे अपने बचपन की याद ताजा कर देती है ।
गांव के सभी लोगों का श्रद्धापूर्वक इसमें भाग लेना कितना आह्लादक होता है । इसमें कितनी सामाजिकता होती है । यह बात केवल गांव का व्यक्ति ही बता सकता है । जबसे नौकरी करने लगा तबसे इस सामाजिकता और सामूहिकता की बात इतिहास की बात ही बनकर रह गई । हां एक बात है कि मन की बात अपने आत्मीयजन से जो बहूत दूर है से फ़ोन पर करके मन को दिलासा दिला लेता है ।
इसी बीच एक बात और अब मन को सालने लग रही है । वह यह है कि शरीर और स्वास्थ्य के कमजोर पडने से निराशा के भाव मन में अपना स्थान बनाने लगे हैं । मुझे व्यक्तिगत रुप से परिवार तथा परिचितों के कष्टकर समाचार से ज्यादा ही व्यथित होने का अहसास हो रहा है । इस सबमें जो मुझे और ज्यादा साल रही है वह है कि जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास ज्यादा करीब से होने लग रहा है ।
आज तक मैंने जो पुस्तकों में पढा वही सब अपने जीवन में घटित होते देखना कभी-कभी बहुत काल्पनिक सा लगता है । परन्तु दूसरे क्षण ही जीवन की कठोरता का अहसास कराती हुई बहुत सजीव सी लगती है । क्या यही जीवन है । जिसको जीवन में बहुत महत्त्व दिया गया वही जब जीवन के लिये कोइ मायने नहीं रखे तो इसे क्या कहेंगे । जीवन के उत्तरार्द्ध में यह सब कुछ सच साबित होते देखने से जीवन में संचित सारे मूल्य एवम संस्कार शून्य प्रतीत होने लगते हैं ।
यहां मैं धन या मुद्रा के महत्त्व को रेखांकित करना चाहूंगा कि कैसे धन परस्पर के संबंधों को प्रभावित कर रहा है । विचित्र बात यह है कि कोई भी व्यक्ति इस बात पर ज्यादा मुखर होना नहीं चाहता है ।

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