मंगलवार, 9 अगस्त 2016

बहुत दिनों बाद आज फिर से इस ब्लोग्ग पर आया हूं । पिछले काफ़ी समय से कुछ लिखने की ईच्छा होती है । परन्तु अन्य सामयिक विषय के कारण लिखना स्थगित हो जाता है ।
यहां मैं यह भी उल्लेख करना उचित समझता हूं कि गत सर्दियों में मैंने सपरिवार दक्षिण भारत की यात्रा की थी जो अनुभव बढ़ाने के लिये तो पर्याप्त थी परन्तु मन भर नहीं पाया । तिरुपति, चेन्नै, महाबलीपुरम, कोयम्बटूर, उटकमन्ड, मदुरै, रामेश्वरम, कन्याकुमारी, कोवालम बीच, एलेप्पी आदि स्थानों की सरसरी तौर पर यात्रा की गई । बेटी की पढ़ाई अगर बाधक नहीं होती तो सर्दियों में और अधिक समय तक दक्षिण के सुखद गुनगुने तापमान का आनन्द लिया जाता ।

खैर यह रही पिछले दिनों की बात । वर्तमान में मुझे अपने माता-पिता के पिन्डदान करने की चिर प्रतीक्षित अभिलाषा पूरी करने की तीव्र उत्सुकता है । मैं जितनी भी जानकारी जुटाने की कोषिश कर सकता हूं कर रहा हूं । परन्तु अनेक बातें हैं जो मन को तसल्ली नहीं दिला पा रही हैं । पिन्डदान का कर्मकान्डी पक्ष, आध्यात्मिक पक्ष के साथ-साथ पारिवारिक और वैचारिक स्तर पर भी चुनौतियों का सामना करना पर रहा है । क्या तरीका रहे जिससे सभी सन्तुष्ट रहें । पिन्डदान केवल पुत्र के करने से नहीं हो सकता है जबतक कि सभी लोगों का समवेत स्वर अनुकूल नहीं हो । पारिवारिक स्तर पर चल रही व्यवस्था भी बाधित नहीं होनी चाहिये यथा बच्चों की शिक्षा ।  गया से जुड़ी जानकारियां भी जुटानी पड़ रही है ।  इसी उहापोह में समय व्यतीत हो रहा है । 

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